सोमवार, 15 मार्च 2010

बदलाव तो प्रकृति का नियम है ना......


इस विश्व कप फाइनल में भी वही टीमें फाइनल में पहुंची जो पिछली दो बार से पहुंच रही थीं। ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी। फर्क सिर्फ इतना रहा कि पिछले दो विश्व कप जर्मनी ने अपने रक्षात्मक और कलात्मक खेल के बदौलत जीते। मगर इस बार ऑस्ट्रेलिया के प्रहार के सामने कोई नहीं टिक पाया। दुनिया की 12 राष्ट्रीय हॉकी टीमों में ऑस्ट्रेलिया ने खुद को अब्बल साबित करते हुए जर्मनी को मात दी। जर्मनी से विश्व विजेता का ताज आठ साल बाद छिना। हॉकी विश्व कप के आखिरी मुकाबले में रिक चार्ल्सवर्थ के कंगारूओं ने जर्मनी के शेरों को 2-1 से मात दी। अपने तेज-तर्रार और आक्रामक खेल से ऑस्ट्रेलिया दूसरी बार विश्व चैम्पियन बना। पहली बार 1986 में चार्ल्सवर्थ की कप्तानी में ऑस्ट्रेलिया वर्ल्ड चैम्पियन बना था। वही चार्ल्सवर्थ जो करीब डेढ़ साल पहले भारतीय हॉकी संघ के अफसरों के आगे-पीछे घूम रहे थे। चार्ल्सवर्थ भारतीय राष्ट्रीय पुरूष हॉकी टीम का कोच बनना चाह रहे थे मगर उन्हें निराश होकर वापस ऑस्ट्रेलिया लौटना पड़ा। अब पिछले 15 महीनों से ऑस्ट्रेलियाई हॉकी के कोच हैं। चार्ल्स ने वो टीम तैयार की है जिसने पिछले एक दशक से विश्व विजेता रही टीम जर्मनी को हरा दिया। भारत में पहली बार हॉकी का इतने बड़े स्तर पर आयोजन हुआ और स्टेडियम में 12 हजार दर्शकों को देखकर सभी दंग हुए।

मेजबान भारत के लिए यह हॉकी का अब तक का सबसे बड़ा आयोजन रहा। साथ ही इसे आईपीएल-3, कॉमनवेल्थ गेम्स और क्रिकेट वर्ल्ड कप के लिए करटेन रेजर के रूप में भी देखा गया। हालांकि एक मेजबान देश से जिस तरह के प्रदर्शन की उम्मीद की जाती है वह देखने को नहीं मिला। 5 मैचों में से एक मैच जीत और एक ड्रा कराकर भारत 12वें से 8वें स्थान पर तो पहुंचा मगर इसे प्रदर्शन में किसी खास सुधार के रूप में नहीं देखा जा सकता है। स्पेन, ऑस्ट्रेलिया और फिर अर्जेंटीना की तेजी के सामने भारतीय खिलाड़ी बिखरे और बौने नजर आए। हर बड़े टूर्नामेंट से पहले अनावश्यक विवादों से उलझन और आवश्यक अभ्यास की कमी भारतीय हॉकी की आदत बन चुकी है। इस विश्व कप से ठीक पहले भी अभ्यास की वजाय खिलाड़ी और अधिकारी पैसे को लेकर आपसी माथापची में उलझे नजर आए।
देश में हॉकी की हालिया स्थिति को देखते हुए इस विश्व कप से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। हॉकी को लेकर जो लोग यह सोचते हैं कि यह दर्शक प्रिय खेल नहीं है, वे गलत हैं। मेजर ध्यान चंद स्टेडियम पर करीब 12 हजार खेलप्रेमियों की भीड़ इस सोच को गलत साबित करने के लिए काफी थी। साथ ही टेन स्पोर्ट्स द्वारा रोचक तरीके से दिखाए गए सीधे प्रसारण से लोगों ने घर बैठे फिर इस खेल से जुड़ाव महसूस किया। हीरो होंडा की भावनात्मक प्रचार की कोशिश भी कहीं न कहीं काम आयी है।

इस विश्व कप से दूसरी चीज जो भारत को सीखनी होगी वह है अपने खेल में आधुनिकता लाना। बने-बनाए ढर्रे को छोड़ बदलाव की राह पकडऩी होगी। पिछले करीब तीस सालों से भारत और पाक अपने खेल में गिरावट के कारणों को ढूंढने में लगे हैं मगर घूम फिर कर एक ही बिंदु पर लौटकर आते हैं और वह है यूरोपीय टीमों का अपने खेल की प्रकति अनुरूप हॉकी में बदलाव। एस्ट्रो टर्फ के प्रयोग को भारत और पाक अपने प्रदर्शन में गिरावट का सबसे बड़ा कारण मानते रहे हैं। वजाए इसके कि खुद को बदलाव में जल्द से जल्द ढाला जाए दोनों मुल्क इसे षडय़ंत्र के रूप में देखते हैं। ये दोनों मुल्क दोषारोपण में लगे हैं, यूरोपीय टीमें खेल में महारथ हासिल करती जा रही हैं जबकि एक समय की शीर्ष की ये टीमें लगातार निचले पायदान पर बनी हुई हैं। इन बदलावों में जल्द से जल्द ढल जाने का उदाहरण है एशिया की ही कोरियाई टीम है जो रैंकिंग में भारत को बहुत पीछे छोड़ चुकी है। इसी नीति के तहत चीन भी तेज रफ्तार पकड़ रही है।

एस्ट्रो टर्फ के साथ-साथ खेल में दूसरे बदलावों का ही नतीजा है कि हॉकी के खेल में तेजी आयी है। गेंद को उचित उछाल के साथ-साथ गति भी मिलती है। यहां आक्रमण से ज्यादा गेंद की रफ्तार से हठखेलियां करना इस खेल को ज्यादा रोचक बना रहा है। किसी भी मौसम में इस सतह पर खेल संभव है चाहे यूरोप की सदी हो या फिर महाद्वीप की बरसात। विश्वकप में लगभग सभी यूरोपीय टीमों के प्रदर्शन से लाखों लोगों के जुडऩे का सबसे बड़ा कारण यही रहा है। खेल में तेजी और रफ्तार आने से इसमें फुटबॉल सा रोमांच आ रहा है। यही कारण रहा कि हजारों दिल्लीवाले पैसा खर्चकर स्टेडियम में मैच देखने पहुंचे। साथ ही भारत के 8वें स्थान पर रहने के बावजूद टेन स्पोर्टस को इसके प्रसारण में अच्छी रेंटिग्स भी मिली। इसलिए हॉकी में यूरोप द्वारा किए गए बदलावों को खेल हित में ही देखा जाना चाहिए।

वजाए अपने खेल में बदलाव कर सुधार करने के, पुराने दिनों के उदाहरण देने से खेल का भला नहीें होने वाला है। समय के साथ चलते हुए हॉकी के हर स्तर पर आधुनिकता और प्रोफेशनलिज्म अपनाना जरूरी होगा। स्कूल से राष्ट्रीय स्तर तक खेल का एक ही तरीका हो, एक तरह की कोचिंग हो और उस पर निगरानी के लिए भी एक गवर्निंग बॉडी हो। वही नियम प्रचलन में लाए जाएं जिन्हें आज दुनिया अपना रही है। क्रिकेट में रणजी या दुलीप ट्राफी जैसे घरेलू आयोजन हॉकी में भी हों जिससे प्रोफेशनल खिलाड़ी निकलें और राष्ट्रीय टीम का हिस्सा बनें। अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि देश के लिए हॉकी खेलने की बजाए पैसे के लिए हॉकी खेलने का लालच युवाओं में हो। आज क्रिकेट, फुटबॉल या अन्य खेलों में पैसा और करियर युवाओं की पहली प्राथमिकता होते हैं और देशभावना बाद में आती है।

1 टिप्पणी:

  1. haan sir ji........bahut dukh hua ki india 8th position pe aya....ye vahi desh hai jo us time baki desho ko dhool chatata tha.....sab is k kayal the.....but dhyan chand ki team to bina kisi faclities k jeet ti thi na????

    aaj hume adhunikta k sath sath.....khel ko dil dena hoga,jaisa ki aap pehle bhi keh chuke hai.......hume isme bhi IPL jaise experiments karne honge.

    sukh sagar
    http://discussiondarbar.blogspot.com/

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