गुरुवार, 13 जनवरी 2011

आईपीएल संग किस ओर जा रहा है क्रिकेट


बिकने शब्द से मुझे नफरत है। जब कोई चीज बिक जाती है तो उसकी अपनी कोई वैल्यू नहीं रहती है। उसका मालिक पैसे वाला होता है, जैसा चाहे वैसे यूज करे। आईपीएल में तो खिलाड़ी खरीदे जाते हैं। अखबारों और टीवी न्यूज पर फलाने बिके औऱ फलाने नहीं बिके की हैडिंग और टीजर लग रहे हैं। खेल मंडी थोड़ी न है जो कुछ भी खरीद-बेच लिया।  ये बातें मेरे एक करीबी दोस्त ने मुझसे उस समय कहीं जब मैं बड़े चाव से आईपीएल-4 में खिलाड़ियों को बिकता देख रहा था। न्यूज चैनल बदल-बदल कर देख रहा था कि कौन कितना मंहगा बिका और किसकी कम कीमत रही। उनके कमेंट पर मैंने कहा, मगर खिलाड़ी तो खुश हैं न। इस पर वे बोले खिलाड़ियों को यह नहीं पता कि इसका कितना खराब सोशल इंपैक्ट है। इंडिया इस ट्रेंड से जिस ओर जा रहा है अब उसे कोई वापिस नहीं ला सकता।
वैसे आईपीएल या क्रिकेट के दीवानों को यह बात हजम नहीं होगी मगर यह सच्चाई है।  सुनकर मैं चौंका औऱ चुप हो गया। फिर सोचने लगा कि कितना दम है इन बातों में। सोचते सोचते तीन साल पहले जब आईपीएल  की शुरुआत हुई तक  जा पहुंचा। ललित मोदी के बारे में सोचने लगा। क्या सोचा था दुनिया ने। मोदी तो किसी देवता से कम नहीं थे। हर चैनल औऱ अखबार पर मोदी गान था। दुनिया भर की मैग्जीन्स के कवर पेज पर छपे थे मोदी साहब। मगर बस तीन सालों में ही मोदी का किरदार बदल गया। अब मोदी को हटा दिया गया। अब दोबारा मोदी छपे तो हैं मगर गलत कारणों के चलते। आईपीएल के इस अपार धन ने अमीर हस्तियों को तो खिलाड़ियों का देवता बनाया ही, नेताओं को भी राजनीति से ज्यादा पैसा खेल के इस खेल में दिखने लगा। फिर वो चाहे शशि थरूर का सुनंदा के लिए कोचि टीम में हिस्सेदारी की सिफारिश करना हो या फिर प्रफुल्ल पटेल का अपनी बेटी के चलते नाम आया हो, नेता भी आईपीएल के इस पैसे से ललचाते दिखे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इस पैसे ने खेल की भलाई से ज्यादा इसकी कब्र खोदी है।
अब क्रिकेट के इस खेल की दीवानगी को सभी भुनाते हुए पैसा कमाने के चक्कर में हैं तो फिर खिलाड़ी इसमें पीछे क्यों रहें। पिछले साल रविंद्र जडेजा ने ज्यादा पैसा पाने के लालच में एक साल का बैन झेला तो वहीं गांगुली ने अपना इस बार बेस प्राइज क्या बढ़ाया, कोई खरीदार ही नहीं मिला। अब कोलकातावासी और देश में गांगुली के प्रशंसक लाख प्रदर्शन कर लें, चलेगी उनकी जो खेल में पैसा लगाकर पैसा कमा रहे हैं। यहां क्रिकेट तो है औऱ क्रिकेटर भी मगर परवाह सिर्फ और सिर्फ पैसे की है। किसको परवाह है कि जिस खिलाड़ी को नहीं खरीदा गया उससे कितने लाखों फैन्स की भावनाएं जुड़ी हैं। किसको परवाह है कि उस खिलाड़ी देश का क्रिकेट को आगे ले जाने में क्या हाथ है। किसको परवाह है कि किसी खिलाड़ी का किसी एक टीम से तीन साल खेलना और फिर उसी का किसी विरोधी टीम में खेलने पर फैन्स क्या सोचते हैं। बस परवाह तो मुनाफे की है।
                
आईपीएल की सबसे खास बात शुरुआत में यह रही थी कि हर शहर की टीम में उस शहर का एक स्टार खेलेगा। किसी शहर की टीम में लोकल जुड़ाव दिखेगा ताकि लोग उस टीम और उनके खेल के सपोर्ट करें। जो उस शहर के लोगों ने अभी तक किया भी है। आईपीएल को जितना भी सफल कहा गया, खेलप्रेमियों की ही बदौलत है। युवराज पंजाब की टीम में नहीं हैं, गांगुली कोलकाता नाइटराडर नहीं रहे और इनके अलावा भी अपने शहर के फेवरिट खिलाड़ियों का दूसरे शहर की टीमों में खेलते देखना बिल्कुल भी सुखद नहीं हो सकता। साथ ही अब तो अपने शहर के खिलाड़ियों से ज्यादा पैसा विदेशी खिलाड़ियों को ही दिया जा रहा है। हालांकि गिनती में तो भारतीय खिलाड़ी ही ज्यादा हैं मगर पैसे के मामले में विदेशी खिलाड़ियों को ही प्राथमिकता दी जा रही है। इस सीजन के लिए हुई बोली में विदेशी और घरेलू खिलाड़ियों को मिलने वाले पैसे के अनुपात से यह साफ हो जाता है कि अब आईपीएल का यह मकसद कि इससे घरेलू खिलाड़ियों को ज्यादा प्रमोट किया जाएगा, झूठा साबित हो रहा है। क्या करें यहां भी मकसद तो सिर्फ पैसा ही है।    
         आईपीएल की इस मंडी का सबसे घातक नुकसान आने वाली जेनरेशन को होने वाला है। क्योंकि अब बच्चों को दूसरा सचिन, सहवाग, गांगुली, द्रविड़ और लक्ष्मण नहीं मिलेंगे। उनके सामने कोई ऐसा खिलाड़ी ही नहीं होगा जिसे दुनिया क्रिकेट का भगवान कहेगी। बच्चों के सामने यूं ही आईपीएल के बिके औऱ अनबिके खिलाड़ी दिखेंगे जो स्टार तो कतई नहीं होंगे। और न  ही इन खिलाड़ियों से खेल के प्रति ईमानदारी की उम्मीद की जाएगी। साथ ही आईपीएल के इस ओवरडोज से इस खेल की दीवानगी भी कहीं न कहीं कम हो रही है। अभी तो चौथा ही संस्करण है आईपीएल का। इस बार तो दो महीने तक चलने वाले विश्व कप के बाद आईपीएल शुरू हो रहा है। ऐसे में लोग सास-बहू के सीरियल देखना ज्यादा पसंद करेंगे बजाए कि क्रिकेट का ओवरडोज लेने के। जैसा कि बीते साल आईपीएल के दौरान टीवी चैनलों की टीआपी रेंटिंग्स दिखा चुकी हैं। डर लगता है क्रिकेट को धर्म समझने वाले इस देश में क्रिकेट से नफरत न करने लगें लोग। मगर एक बात तो पक्की है कि ऐसा होने में थोड़ी देर जरूर लगेगी। जब तक टेस्ट क्रिकेट जिंदा है तब तक क्रिकेट की दीवानगी भी रहेगी। साउथ अफ्रीका के साथ सीरिज औऱ एशेज की दीवानगी ने दुनिया भर में यह साबित कर दिया है।


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