गुरुवार, 13 जनवरी 2011

आईपीएल संग किस ओर जा रहा है क्रिकेट


बिकने शब्द से मुझे नफरत है। जब कोई चीज बिक जाती है तो उसकी अपनी कोई वैल्यू नहीं रहती है। उसका मालिक पैसे वाला होता है, जैसा चाहे वैसे यूज करे। आईपीएल में तो खिलाड़ी खरीदे जाते हैं। अखबारों और टीवी न्यूज पर फलाने बिके औऱ फलाने नहीं बिके की हैडिंग और टीजर लग रहे हैं। खेल मंडी थोड़ी न है जो कुछ भी खरीद-बेच लिया।  ये बातें मेरे एक करीबी दोस्त ने मुझसे उस समय कहीं जब मैं बड़े चाव से आईपीएल-4 में खिलाड़ियों को बिकता देख रहा था। न्यूज चैनल बदल-बदल कर देख रहा था कि कौन कितना मंहगा बिका और किसकी कम कीमत रही। उनके कमेंट पर मैंने कहा, मगर खिलाड़ी तो खुश हैं न। इस पर वे बोले खिलाड़ियों को यह नहीं पता कि इसका कितना खराब सोशल इंपैक्ट है। इंडिया इस ट्रेंड से जिस ओर जा रहा है अब उसे कोई वापिस नहीं ला सकता।
वैसे आईपीएल या क्रिकेट के दीवानों को यह बात हजम नहीं होगी मगर यह सच्चाई है।  सुनकर मैं चौंका औऱ चुप हो गया। फिर सोचने लगा कि कितना दम है इन बातों में। सोचते सोचते तीन साल पहले जब आईपीएल  की शुरुआत हुई तक  जा पहुंचा। ललित मोदी के बारे में सोचने लगा। क्या सोचा था दुनिया ने। मोदी तो किसी देवता से कम नहीं थे। हर चैनल औऱ अखबार पर मोदी गान था। दुनिया भर की मैग्जीन्स के कवर पेज पर छपे थे मोदी साहब। मगर बस तीन सालों में ही मोदी का किरदार बदल गया। अब मोदी को हटा दिया गया। अब दोबारा मोदी छपे तो हैं मगर गलत कारणों के चलते। आईपीएल के इस अपार धन ने अमीर हस्तियों को तो खिलाड़ियों का देवता बनाया ही, नेताओं को भी राजनीति से ज्यादा पैसा खेल के इस खेल में दिखने लगा। फिर वो चाहे शशि थरूर का सुनंदा के लिए कोचि टीम में हिस्सेदारी की सिफारिश करना हो या फिर प्रफुल्ल पटेल का अपनी बेटी के चलते नाम आया हो, नेता भी आईपीएल के इस पैसे से ललचाते दिखे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इस पैसे ने खेल की भलाई से ज्यादा इसकी कब्र खोदी है।
अब क्रिकेट के इस खेल की दीवानगी को सभी भुनाते हुए पैसा कमाने के चक्कर में हैं तो फिर खिलाड़ी इसमें पीछे क्यों रहें। पिछले साल रविंद्र जडेजा ने ज्यादा पैसा पाने के लालच में एक साल का बैन झेला तो वहीं गांगुली ने अपना इस बार बेस प्राइज क्या बढ़ाया, कोई खरीदार ही नहीं मिला। अब कोलकातावासी और देश में गांगुली के प्रशंसक लाख प्रदर्शन कर लें, चलेगी उनकी जो खेल में पैसा लगाकर पैसा कमा रहे हैं। यहां क्रिकेट तो है औऱ क्रिकेटर भी मगर परवाह सिर्फ और सिर्फ पैसे की है। किसको परवाह है कि जिस खिलाड़ी को नहीं खरीदा गया उससे कितने लाखों फैन्स की भावनाएं जुड़ी हैं। किसको परवाह है कि उस खिलाड़ी देश का क्रिकेट को आगे ले जाने में क्या हाथ है। किसको परवाह है कि किसी खिलाड़ी का किसी एक टीम से तीन साल खेलना और फिर उसी का किसी विरोधी टीम में खेलने पर फैन्स क्या सोचते हैं। बस परवाह तो मुनाफे की है।
                
आईपीएल की सबसे खास बात शुरुआत में यह रही थी कि हर शहर की टीम में उस शहर का एक स्टार खेलेगा। किसी शहर की टीम में लोकल जुड़ाव दिखेगा ताकि लोग उस टीम और उनके खेल के सपोर्ट करें। जो उस शहर के लोगों ने अभी तक किया भी है। आईपीएल को जितना भी सफल कहा गया, खेलप्रेमियों की ही बदौलत है। युवराज पंजाब की टीम में नहीं हैं, गांगुली कोलकाता नाइटराडर नहीं रहे और इनके अलावा भी अपने शहर के फेवरिट खिलाड़ियों का दूसरे शहर की टीमों में खेलते देखना बिल्कुल भी सुखद नहीं हो सकता। साथ ही अब तो अपने शहर के खिलाड़ियों से ज्यादा पैसा विदेशी खिलाड़ियों को ही दिया जा रहा है। हालांकि गिनती में तो भारतीय खिलाड़ी ही ज्यादा हैं मगर पैसे के मामले में विदेशी खिलाड़ियों को ही प्राथमिकता दी जा रही है। इस सीजन के लिए हुई बोली में विदेशी और घरेलू खिलाड़ियों को मिलने वाले पैसे के अनुपात से यह साफ हो जाता है कि अब आईपीएल का यह मकसद कि इससे घरेलू खिलाड़ियों को ज्यादा प्रमोट किया जाएगा, झूठा साबित हो रहा है। क्या करें यहां भी मकसद तो सिर्फ पैसा ही है।    
         आईपीएल की इस मंडी का सबसे घातक नुकसान आने वाली जेनरेशन को होने वाला है। क्योंकि अब बच्चों को दूसरा सचिन, सहवाग, गांगुली, द्रविड़ और लक्ष्मण नहीं मिलेंगे। उनके सामने कोई ऐसा खिलाड़ी ही नहीं होगा जिसे दुनिया क्रिकेट का भगवान कहेगी। बच्चों के सामने यूं ही आईपीएल के बिके औऱ अनबिके खिलाड़ी दिखेंगे जो स्टार तो कतई नहीं होंगे। और न  ही इन खिलाड़ियों से खेल के प्रति ईमानदारी की उम्मीद की जाएगी। साथ ही आईपीएल के इस ओवरडोज से इस खेल की दीवानगी भी कहीं न कहीं कम हो रही है। अभी तो चौथा ही संस्करण है आईपीएल का। इस बार तो दो महीने तक चलने वाले विश्व कप के बाद आईपीएल शुरू हो रहा है। ऐसे में लोग सास-बहू के सीरियल देखना ज्यादा पसंद करेंगे बजाए कि क्रिकेट का ओवरडोज लेने के। जैसा कि बीते साल आईपीएल के दौरान टीवी चैनलों की टीआपी रेंटिंग्स दिखा चुकी हैं। डर लगता है क्रिकेट को धर्म समझने वाले इस देश में क्रिकेट से नफरत न करने लगें लोग। मगर एक बात तो पक्की है कि ऐसा होने में थोड़ी देर जरूर लगेगी। जब तक टेस्ट क्रिकेट जिंदा है तब तक क्रिकेट की दीवानगी भी रहेगी। साउथ अफ्रीका के साथ सीरिज औऱ एशेज की दीवानगी ने दुनिया भर में यह साबित कर दिया है।


मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

स्टेटस क्या है 50वें सचिन का...

कल अखबार में मनोज प्रभाकर की फोटो देखी।  मनोज प्रभाकर एक पतले-दुबले, घुंघराले बालों वाले  खिलाड़ी की पीठ थपथपाकर उसके शतक के लिए बधाई दे रहे हैं। दिन था 24 अगस्त 1990 का और जगह थी मैनचेस्टर का ओल्ड ट्रैफॉर्ड क्रिकेट ग्राउंड। इस फोटो को देखकर सिर्फ यही सोच रहा था कि क्या उस समय प्रभाकर को इस बात का अंदाजा होगा कि वे जिसे शाबाशी दे रहे हैं या उन दर्शकों को इस बात का फक्र हुआ होगा वे जिस खिलाड़ी के पहले शतक के गवाह बन रहे हैं। उनके लिए आज सचिन का 50वां शतक देखना अलग तरह का अहसास रहा होगा। वो अहसास जो मैंने सचिन के वनडे में दोहरे शतक के दौरान फील किया था। ग्वालियर के रूप सिंह स्टेडियम और वहां के तमाम दर्शकों के साथ-साथ दुनिया भर में टीवी, इंटरनेट और मोबाइल पर लोगों ने इसे भी फील किया था। एक अलग अहसास जो आपको सचिन के इस 50वें शतक से भी मिला है। विदेशी धरती के दौरे का पहला मैच एक पारी और 25 रनों से हार जाने के दुख के बीच सचिन के 50वें शतक का मरहम। भारत हारा और मीडिया ने बिल्कुल भी आलोचना नहीं की क्योंकि सचिन जो जीता था। लोगों ने सचिन की जीत को अपना लिया हार को भुला दिया।

   सचिन के 50वें शतक को सेलिब्रेट करते हुए एक न्यूज चैनल ने उनके पचासों शतकों को दिखाया। 50वें से वापिस पहले शतक  तक का सफर। सभी प्रमुख अखबारों ने फुल पेज सचिन के आंकड़ों को गिनाया। सचिन के साथ खेल चुके पूर्व खिलाडियों ने अपने एक्सक्लूसिव कॉलम भी लिखे। यह पहली बार नहीं हुआ। यह हर उस मौके पर होता है जब यह खिलाड़ी रन बनाता है। मगर यह सारी कवरेज देखकर मैं सोचने लगा कि कैसी कवरेज होगी उस दिन के अखबारों और चैनलों पर जिस शाम सचिन क्रिकेट को अलविदा कहेंगे। क्रिकेट से इस खिलाड़ी की विदाई के बारे में सोचना बिल्कुल भी सुखद नहीं है। मगर सच तो यही है कि एक दिन सचिन इस खेल से विदा लेंगे और कोई टाइम मैग्जीन सचिन को कवर पर छापने की बजाए पूरी मैग्जीन ही सचिन को समर्पित करेगी, कोई चैनल 24 घंटे सचिन के बचपन से तब तक के वीडियो दिखाएगा और अखबार का हर पन्ना सचिन के नाम और काम से रंगा होगा। मगर इसे पढऩा इतना सुखद कभी नहीं होगा जितना सचिन की एक छोटी से पारी की कवरेज को पढऩे में आता है।

  हाल में एक नेशनल इंग्लिश डेली के सप्लीमेंट में कवर स्टोरी थी कि क्या हम आसानी से किसी भी सेलेब्रिटी को अपना आइडियल बना लेते हैं। कितना मुश्किल है अपनी छवि, शोहरत और सामाजिक जिम्मेदारी को ढो पाना। संदर्भ था अमेरिकन गॉल्फर टाइगर वुड्स, मीडिया सेलिब्रिटी बरखा दत्त, पाक क्रिकेटर्स, शेन वार्न और हमारे नेताओं का। मगर इसे पढऩे के बाद मुझे लगा कि नहीं हमने सचिन तेदुंलकर को आसानी से अपना आइडियल नहीं बनाया है। 21 सालों के इस सफर में सचिन के कई टेस्ट हुए हैं जिनमें लगातार पास होकर हमारा ट्रस्ट जीता है। इस टेस्ट में चाहे अनेक खिलाडिय़ों से सचिन की महानता की तुलना हो, फॉर्म हो या फिर आंकड़ों के खेल में जीत। हर टेस्ट में जीता है सचिन। इन 21 सालों में सचिन से ज्यादा पैसा शायद ही किसी ने कमाया मगर पैसे के साथ पॉपुलैरिटी, फैन फॉलोइंग और सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी को सचिन ने उसी गंभीरता और पैशन से निभाया जैसे वे क्रिकेट को निभाते आए हैं। शराब कंपनी के प्रचार के लिए करोड़ों रुपयों के ऑफर को आज का क्रिकेटर यूं ही नहीं ठुकराता है।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

क्या नहीं है इस गुस्सैल भज्जी के पास ?

                   
         अपने वरिष्ठ खेल पत्रकार से भज्जी के शतक के बारे में बात छेड़ी तो उन्होंने एक किस्सा बताया। कहा कि 2001 में भज्जी और युवराज को चंडीगढ़ भास्कर ऑफिस बुलाया गया था। इस प्रोग्राम में एक बोर्ड पर दोनों खिलाडियों के करियर के आंकड़े लगाए गए थे। जहां भज्जी के शतकों की लिस्ट में जीरो लिखा था और तभी भज्जी ने युवी से कहा कि इस जीरो को हटाना है। आज वो जीरो नहीं रहा। वहां अब एक नहीं दो शतक लिखे हैं। ऐेसे शतक जिन्हें कोई पुछल्ले बल्लेबाज के शतक नहीं मानेगा। 
        भज्जी के इन शतकों को दुनिया एक कंपलीट बल्लेबाज के शतक मानेगी जिसमें क्लास है, स्पीड है, स्ट्रोक है, हिटिंग है, ओवरस्टेपिंग है, स्वीप है, डिफेंस है, कट है, ड्राइव है और सबसे ज्यादा तो आत्मविश्वास है जो दुनिया के किसी बेहतरीन बल्लेबाज की बल्लेबाजी में देखने को मिलती हैं। भज्जी के पास भी सब कुछ है। तभी तो अहमदावाद टेस्ट की दूसरी पारी में सचिन की तरह कवर ड्राइव लगाकर चौके से हाफ सेंचुरी पूरा करता है। सहवाग की तरह 95 रन पर होते हुए ओवर स्टेप कर छक्का मारते हुए 101 पर पहुंच जाता है। तो क्या नहीं है भज्जी के पास और क्यों लिया 88 टेस्ट खेलकर शतक तक पहुंचने का समय?
          भज्जी के खेल को देखकर वो पुराना भज्जी बिल्कुल नजर नहीं आता है। वही भज्जी जो हमेशा खून में उबाल के साथ बल्ला पकड़़ता था, जो बैटिंग को कभी गंभीरता से लेता ही नहीं था। आठवें नंबर पर बैटिंग के दौरान अगर पीछे से किसी गिलक्रिस्ट या किसी हेडन ने कुछ बोल दिया तो हर बॉल को बाउंडरी पार पहुंचाने की जिद्द पकड़ कर किसी गलत शॉट से आउट हो जाता था। विदेशी धरती पर जाकर नस्लभेदी टिप्पणी का जवाब उसी अंदाज में देता था। यह वही गर्म मिजाज भज्जी है जो आईपीएल में किसी विवाद पर श्रीसंत को थप्पड़ जड़ देता है। यह अलग बात है कि हैदराबाद में भज्जी का दूसरा शतक  पूरा करवाने के लिए उसी श्रीसंत ने अपने करियर का सबसे लंबा टाइम पिच पर बिताया।
                पहले शतक को भज्जी ने इसे अपने स्वर्गीय पिता को समर्पित किया। मगर अपना दूसरा शतक भज्जी को उस कोच के नाम करना चाहिए जिसने भज्जी को एक बल्लेबाज बनाने का सपना देखा था। एक मामूली परिवार से आने वाले हरभजन को कोच चरणजीत सिंह भुल्लर बल्लेबाज बनाना चाहते थे मगर अचानक मौत के बाद भज्जी कोच दविंदर अरोड़ा के पास पहुंचे जिन्होंने स्पिन की बारीकियां सिखायीं। भज्जी के गुस्सैल नेचर के कारणों को जानने के लिए मैंने अपने साथ के कुछ लोगों से बात की। कोई कहता है कि पंजाबी होने के कारण वह गुस्सैल प्रवृत्ति का है तो कोई उसके पारिवारिक संघर्ष का उदाहरण पेश करता है। पांच बहनों का अकेला भाई और करियर अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि हमेशा क्रिकेट खेलने के लिए प्रेरित करने वाला पिता दुनिया से ही चल बसा। इधर नेशनल क्रिकेट अकैडमी से इसलिए निकाल दिया क्योंकि उसने खिलाडिय़ों को चार्ट पर लिखी डाइट के हिसाब से खाना नहीं मिलने का विरोध किया । विरोध पर भी कुछ नही हुआ सो ताव में आकर चार्ट ही फाड़ डाला जिसके चलते अकैडमी से भी बाहर हो गया। पांच कुंवारी बहनों की जिम्मेदारी और शुरुआती करियर में नाकामयाबी के दवाब के चलते एक आम पंजाबी युवा की तरह भज्जी भी कैनेडा जाकर ट्रक चलाने का भी निर्णय कर चुका था। मगर सौरभ गांगुली और जॉन राइट ने भज्जी के  भीतर पल रहे इस गुस्से को चैनल दिया 2001 की गावसकर-बॉर्डर ट्रॉफी में जहां हार के बावजूद 4 विकेट और कोलकाता में हैट्रिक लेकर बन गया टर्बनेटर।
                भज्जी का गुस्सा किसी बौखलाहट की निशानी नहीं लगता। यह गुस्सा प्रतीक है क्रिकेट के प्रति उसकी आस्था और उन तमाम सपनों का जो उसे इस खेल से मिले हैं। कभी ठीक से हिंदी भी ठीक से न बोल पाने वाला यह खिलाड़ी आज इंग्लिश चैनल के शो पर गेस्ट बनता है। कभी टीम के लिए फिलर रहे इस खिलाड़ी की अहमियत आज उतनी ही है जितनी बैटिंग के लिए सचिन या सहवाग की है। आज भज्जी सीनियर है और यंगस्टर्स के लिए प्रेरणा भी। प्रेरणा उन सभी युवा और मध्यमवर्गीय परिवारों के खिलाडिय़ों के लिए जो सफलता के गुरूर और पैसे के बहाव में बह जाते हैं। जो खेल से खुद को बड़ा फील करने लगते हैं और बिकने की कोशिश करते हैं।अपने शो वॉक द टॉक में जब शेखर गुप्ता ने भज्जी से यह पूछा कि क्या आपसे भी कभी किसी फिक्सर ने संपर्क करने की कोशिश की। इस पर भज्जी ने जबाव दिया, नहीं। मगर यदि ऐसा कोई बंदा आता तो मैं उसे जोर से थप्पड़ मार देता।

   
 

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मुरली के साथ जाएगा, हमारा बचपन और जवानी की देहरी की स्मृतियां


तमिल मूल के एक मामूली दुकानदार के बेटे मुथैया मुरलीधरन क्रिकेट छोड़ रहे हैं। उन्होंने औसतन 6 विकेट प्रति मैच लिए। दुनिया में सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज रहे। अपने अलग बॉलिंग स्टाइल और एक्शन से हमेशा सुर्खियों में रहे। आज 792 टेस्ट विकेट लिए मुरली जहां पहुंचे हैं, वहां से दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता है। अपने आखिरी टेस्ट में शायद यह आंकड़ा 800 तक पहुंच जाए मगर इसके बाद क्रिकेट की दुनिया में अगला मुरली कौन होगा, होगा कि भी नहीं कैसे सोचें।
            जब कोई खिलाड़ी अपने बेहतरीन दौर से गुजर रहा होता है तो तमाम लोगों से उनकी तुलना की जाती हैं। कौन बेहतर है और कौन बेस्ट, यह सवाल सबके लिए उठते रहे हैं। मुरली ने एक गेंदबाज के तौर पर सारे कीर्तिमान अपने नाम किए, मगर शेन वॉर्न से उनकी तुलना होती रहती है। कल भी होती रहेगी। लोग शेन वॉर्न को बेहतर बताते हुए कहते हैं कि वह मुरली से ज्यादा महान हैं। तर्क कई हैं। पहला कि शेन वार्न ने ऐसे देश के लिए क्रिकेट खेला है, जहां दूसरे साथी गेंदबाज भी विकेट लेने में पीछे नहीं रहे हैं। चाहे वह ग्लेन मैक्ग्राथ हो या फिर जेसन गिलेस्पी। यहां शेन के लिए ज्यादा विकेट लेना हमेशा ही मुश्किल रहा है फिर भी शेन ने अपनी अपना प्रतिभा के दम पर दुनिया भर में राज किया। वहीं श्रीलंकाई टीम में मुरली के साथ सिवाए चामुंडा वास के कोई भी दूसरा गेंदबाज हावी नहीं हुआ। इसलिए अपनी स्पिन में विविधता और अजीब एक्शन ने मुरली को विकेट अपने नाम करने का हमेशा मौका दिया। खैर तुलनाओं का आधार कुछ भी हो मगर मुरली की महानता को कम करके आंकना किसी भी तरह से इस खिलाड़ी के करियर और प्रतिभा के साथ न्याय नहीं है।
        मुरलीधरन ने आज करियर की ऊंचाई पर टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहने का मन तो बनाया है मगर आज जिन परिस्थितियों और शर्मिंदगियों का सामना कर मुरली यहां तक पहुंचे हैं, वह विशेष है। कुछ के लिए उनकी महानता का भी सबूत है।

                   95-96 को ऑस्ट्रेलियाई दौरे में मुरली पर पहली बार थ्रोइंग के इल्जाम लगे। मगर आर्ईसीसी के बायोकैमिकल टेस्ट में मुरली को आरोपों से रिहाई मिली। युनिवर्सिटी ऑफ ऑस्ट्रेलिया और युनिवर्सिटी ऑफ हॉन्ग कॉन्ग ने 1996 में इसे आंखों का धोखा करार दिया। 1998-99 के ऑस्ट्रेलियाई दौरे के दौरान एक बार फिर मुरली को संदेह के चलते बुलाया गया, मगर फिर टेस्ट में कुछ भी साफ नहीं हुआ। 2004 में मुरली के दूसरा गेंद फैंकने की सटीकता पर सवाल उठाए गए, मुरली को फिर बुलाया गया मगर मुरली फिर टेस्ट में पास हुआ। जिस रफ्तार से क्रिकेट में टेक्नोलॉजी आती रही मुरली की मुश्किलें बढ़ती रहीं। बार-बार संदेह के चलते बीच सीरीज बुलावा, मीडिया में नेगेटिव खबरों पर घंटों चलती बहसें, क्रिकेट विशेषज्ञों के अखबारों में लेख और न जाने कितने टिप्पणियां और तर्क। मगर इस बीच मुरली फिर उस मैदान पर वापसी करते रहे और जज्बे के साथ।

17 साल के इस लंबे करियर में मुरली ने जो शिखर खड़ा किया है उस तक पहुंचना उतना ही मुश्किल होगा, जितना किसी बल्लेबाज के लिए सचिन पर पार पाना। कहा जाता है कि किसी अच्छे खिलाड़ी और महान खिलाड़ी में एक ही फर्क होता है, दूसरों पर प्रभाव का जिसे अंग्रेजी में ऑरा कहते हैं। शायद यही औरा मुरली का कद है। चाहे कोई भी आ जाए, मुरली जैसे अनूठे हाव-भाव और बॉलिंग एक्शन वाला बेहद कमाल गेंदबाज अब संभवतः हमें दोबारा देखने को नहीं मिलेगा।

रविवार, 11 जुलाई 2010

फीफा वर्ल्ड कप 2010: खेल पर कम और ऑक्टोपस पर ज्यादा बातें करते हम

        इस वर्ल्ड  कप को अगर सबसे ज्यादा कोई टीम याद रखेगी तो वह होगी जर्मनी। कारण टीम का कमतर प्रदर्शन नहीं है। कारण है खुद को हराने में समुद्री जीव ऑक्टोपस पॉल का हाथ। एक तरफ जहां जर्मनी अपने समर्थकों और स्टोरियों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी, वहीं ऑक्टोपस ने तो 6 में से 6 सही भविष्यवाणियां कर इस वर्ल्ड  कप का मैन ऑफ द टूर्नामेंट ही अपने नाम कर लिया। जर्मनी के एक्वेरियन सी लाइफ सेंटर में पल रहे इस 8 भुजाओं वाले समुद्री जीव की भविष्यवाणियों को खेल जगत ने कुछ यूं लिया जैसे साक्षात भगवान ने आकर कुछ अजूबा कर दिया हो। खैर, जो भी हो जर्मनी की हार और अब आखिरी मैच में जर्मनी की जीत की भविष्यवाणी के सही हो जाने से ऑक्टोपस हीरो जैसा बन गया है। मगर इतने बड़े खेल आयोजन में टीमों और खिलाडिय़ों के प्रदर्शन से ऐसे टोटकों को देखना कितना सही है? क्या ऐसी बचकानी हरकतों से खेल की उष्मा का ध्यान नहीं बंटता है? हमारे यहां तोते हैं, बाबा हैं और ज्योतिषी हैं। इसका मतलब तो यह हुआ कि हम उन्हें आज तक यूं ही कोसते रहे। जिन देशों को आधुनिक कहा जाता है, वहां यह ऑक्टोपस की घटना कितनी सही है?

           
  अब जर्मनी के खेल प्रेमी हैं, जो इन भविष्यवाणियों के सही साबित होने से गहरे सदमे में है। इससे ऑक्टोपस यहां जर्मनी का अघोषित दुश्मन बन गया है। हालांकि यह तुलना करना भी गलत होगा लेकिन, शायद उन यहूदियों से भी बड़ा दुश्मन जिसके चलते यहां हिटलर और नाजीवाद जन्मा। इंसानों की मूर्खताओं से अब कहीं इस बेचारे जीव के अस्तित्व पर कोई बात न आ जाए। वैसे भी खबरें तेज हैं कि जर्मन लोग ऑक्टोपस से कुछ इस कदर खफा हैं कि वे एक-दूसरे को ऑक्टोपस के मांस से बने व्यंजन सुझा रहे हैं। फेसबुक पर एंटी ऑक्टोपस आंकड़े बढ़ रहे हैं। ट्विटर पर ऐसी ट्वीट्स लिखी जा रही हैं, जिनमें ऑक्टोपस को शार्क के हवाले करने की बातें लोग कर रहे हैं। कुछ जर्मन बैड्स ने तो लोकतांत्रिक तरीकों से एंटी-ऑक्टोपस गाने तक तैयार कर लिए हैं। अगर कहें तो, ऑक्टोपस भी चालाक निकला। अपने खिलाफ ज्यादा असंतोष देख जर्मनी को तीसरा स्थान दिला दिया।

  एक बात समझनी थोड़ी मुश्किल है कि खेलों में ऐसा क्यों होता है? किसी भी खेल में जब खेल प्रेमियों की भावनाएं और चरम सीमा तक पैशन जुड़ जाता है, तो पिछले दरवाजे से अंधविश्वास भी दाखिल हो जाता है। अभी तक जब दुनिया इंडिया-पाक की क्रिकेट खिलाडियों को अच्छे प्रदर्शन के लिए तमाम टोटके करती देखती थी तो इसे अंधविश्वास कहा जाता रहा। गांगुली का रूमाल किसी दिन इसके लिए चर्चित होता है, तो कभी शोएब अख्तर का ताबीज। जहां खेल के लिए पैशन ज्यादा हो जाता हैं, वहां एक हद के बाद पैशन अंधविश्वास में बदल ही जाता है। मगर इस तरह ऑक्टोपस या फिर मनी तोते की भविष्यवाणियों से खेल पर लगाए जाने वाले अरबों के सट्टों का क्या होगा?

इस वर्ल्ड  कप में पूछा जाने वाले सबसे अहम सवाल यह नहीं वाला है कि कौनसी टीम जीती? सबसे अहम सवाल तो यह है कि हमने खेल पर कितनी बात की है?

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

एडिडास क्यों बताए कि कौन सी हो फुटबॉल?

  फुटबाल का विश्व कप चार साल में एक बार आता है। जितना इंतजार एक खेल प्रेमी को इसका नहीं होता है उससे कहीं ज्यादा स्पॉन्सर कंपनियां इसके इंतजार में रहती हैं। इतना बड़ा इंवेट जो है। और हां, बड़ा इवेंट है तो बड़ा मुनाफा भी यहीं से आना है। 32 टीमें और उन पर नजर गड़ाए बैठीं ये कंपनियां। इस वर्ल्ड  कप में दुनिया के sports आउटफिट यानी खेल poshak बनाने बाली सबसे बड़ी कंपनी एडिडास ने 12 बड़ी टीमों के साथ अनुबंद किया। अन्य व्यावसायिक हितों वाली कंपनियों में प्यूमा ने 11 और नाइकी ने 9 टीमों के साथ करार किया। अब 4 टीमें खेल के मैदान में बची हैं। इनमें एडिडास के साथ अनुबंध वाली जर्मनी और स्पेन, प्यूमा की उरुग्वे और नाइकी के साथ वाली हॉलैंड मैदान पर बची हैं। और, अब इन्हीं टीमों के प्रदर्शन पर टिका है मुनाफे का सारा खेल। दांव बहुत बड़ा है। जहां कंपनियां हर दूसरे हफ्ते नई-नई रणनीतियां बनाती रहती है कि बस मुनाफा कुछ और बढ़ जाए। ऐसे में अब यह आयोजन चार साल बाद आना है। खैर, एक खेल प्रेमी को इस दांव से क्या लेना। उसे तो चाहिए वो खेल का रोमांच जिस कारण वह इसे पसंद करता है।

   क्रिकेट में जिस तरह खेल के छोटे वर्जन यानी 20-20 को लाया गया, ताकि ज्यादा से ज्यादा रन बनें, ज्यादा चौके-छक्कों की बरसात हो और ज्यादा दर्शक खींचे जाए। ठीक उसी तरह के प्रयोग फुटबॉल ने भी किए हैं। एक नई गेंद, एडिडास जाबुलानी। इस कंपनी एडिडास की मानें तो ये ज्यादा सही बॉल है। कंपनी के मुताबिक इस बॉल से खेल में तेजी और रोमांच बनाया रखा जा सकता है। गेंद कई इंजीनियरिंग प्रयोगों और तकनीकी को ध्यान में रख कर बनाई गई है और एकदम गोल है। ऐसी बॉल जो लक्ष्य को भेदने में ज्यादा समर्थ है। मगर जिस तरीके से 12 जून को ये गेंद इंग्लिश गोलकीपर के हाथों से निकल कर सीधे गोल के नेट पर जा लगी थी, सभी ने चौंकते हुए इस गेंद की बनावट पर सवाल खड़े किए थे।  अमेरिकी गोलकीपर हॉबर्ड ने खुलकर इस गेंद के फील्ड पर अजीबोगरीब व्यवहार पर सवाल खड़े किए। आखिर क्या नया किया होगा इस गेंद में एडिडास ने? 
 कुछ भी हो, इतना जरूर है कि यहां एडिडास के लिए खेल सिर्फ और सिर्फ मुनाफे का है। बड़ा मुनाफा। और हां, अब कुछ बड़ा पाने के  लिए कुछ बड़ा तो करना ही होगा न। क्रिकेट में पिचों और नियमों को बल्लेबाजों के अनुकूल क्यों किया गया? ताकि ज्यादा रन बने और खेल के जरिए कारोबार ज्यादा चाशनी वाला हो। क्या कुछ ऐसा ही जाबुलानी लाकर तो नहीं किया जा रहा है? कारण और भी कई हो सकते हैं। टीमों को या कुछ विशेष टीमों की रणनीतियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश। गोलकीपर और बॉल के बीच के तालमेल में कुछ बदलाव लाने की कोशिश। या ऐसा ही कुछ। गेंद के जरिए खले में बदलाव संभव हैं। एडिडास जाबुलानी गेंद में कुछ भी अजूबा हो, ये कहीं न कहीं अपनी टीमों को फायदा पहुंचाने और ज्यादा धन कमाने के मकसद से प्रेरित प्रयास लगता है।

  क्या होगा अगर एडिडास ने अपने मुनाफे के लिए गेंद में कुछ बदलाव भी किए होगें तो? अगर फाइनल में जर्मनी और स्पेन नहीं पहुंची तो? और अगर यही दोनों टीमें फाइनल में एक -दूसरे के विरुद्ध खेलने उतरीं तो? क्या यहां खेल और खेल प्रेमियों के साथ न्याय हो रहा है या भारी मुनाफे के ढेर में हुनर और खेल भावना का दम घोंटा जा रहा है? इसका सीधा-साधा असर खेलों के सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर जरूर पड़ेगा, इस बात को ध्यान में रखा जाए।

शनिवार, 20 मार्च 2010

राजा और रंक.....

क्रिकेट की पहचान है बल्ला। वही बल्ला जिसकी मांग आज तीन साल का बच्चा तक करता है। यही नहीं बुजुर्ग भी उसे कभी-कभार थामने की चाह रखते हैं। सर डॉन हो या फिर तेंदुलकर, बल्ले के दम पर क्रिकेट की दुनिया पर राज करते हैं। इसी बल्ले से एक पुछल्ला बल्लेबाज भी आईपीएल में गगनचुंबी छक्के टांग देता है। बल्ले के दम पर ही तो क्रिकेट दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेलों में लीडर बना है। या यूं कहा जाए कि इसे मंनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बल्ले ने ही बनाया है। समय के साथ इस बल्ले में कई बदलाव आए हैं। क्रिकेट के इतिहास पर नजर डालने पर पता चलता है कि 1620 में पहली बार इंग्लैंड में इसका प्रयोग हुआ। इससे भी रोचक यह कि बल्ले की शुरूआत ही प्रहार से हुई। एक मैच के दौरान बल्लेबाज ने फील्डर को कैच पकडऩे से रोकने के लिए उसके सिर पर बल्ला दे मारा जिससे मौके पर ही फील्डर की मौत हो गई। उसी के परिणामवश लागू हुआ क्रिकेट में कानून-37(फील्डिंग में रूकावट)।

उस समय बल्ले की बनावट बिल्कु ल आज की आधुनिक हॉकी स्टिक सी थी। कारण था उस समय का गेंदबाजी स्टाइल। शुरूआती दौर में गेंदबाजी अंडरआर्म की जाती थी जिसमें गेंद जमीन पर खिसटते हुए बल्लेबाज तक पहुंचती थी। इसलिए बल्ले की इस बनावट को खेल के अनूकूल माना गया। समय बदला और 1770 आते-आते गेंदबाजी भी बदली। गेंदबाज अंडरआर्म गेंद तो फेंकते थे मगर अब हवा में लहराते हुए गेंद बल्लेबाज तक पहुंचने लगी थी। इसलिए बल्लेबाज को भी अपने बैंटिग स्टाइल में बदलाव करते हुए बल्ले के आकार को बदलने की जरूरत महसूस हूई। ऐसे में इजात हुआ आज के आधुनिक बल्ले का शुरूआत रूप, जिसमें इसने आयाताकार शेप ले ली। करीब 50 साल बाद 1820 में गेंदबाजी स्टाइल में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ और अब गेंदबाजी राउंड आर्म यानि पूरा हाथ घूमा कर की जाने लगी जिससे गेंद तेजी के साथ 22 गज का सफर तय करने लगी। और तभी से आज के आधुनिक बल्ले जिसकी लंबाई 38 इंच((965 एमएम) और मोटाई 4.25 इंच (108 एमएम) तय की गई।
( यह ग्राफिक द टेलेग्राफ से लिए गया है।)
क्रिकेट में बल्लों ने उस हॉकी स्टिक से दिखने वाले बल्ले से लेकर आज आधुनिक क्रिकेट में इन आयताकार बल्लों तक का सफर तय किया है। मगर आज भी यह बदलाव जारी है। शुक्रवार को हुए चेन्नई सुपर किंग्स और दिल्ली डेयरडेविल्स आईपीएल मुकाबले में एक अलग ही तरह के बल्ले का प्रयोग देख्रा गया। एक ऐसा बल्ला जिसकी लंबाई और भार स्टैंडर्ड बल्ले से आधा है। नाम है मोनगूज(नेवला)जो दिखने में एकदम खिलौना लगता है। लंबे हत्थे और छोटे ब्लेड वाले इस हल्के बल्ले को इसकी बनावट के अनूरूप नाम देना हो तो जिराफ से बेहतर नाम नहीं हो सकता है। ऑस्ट्रेलियाई विस्फोटक बल्लेबाज मैथ्यू हैडन ने प्रयोग के तौर पर इसे इस आईपीएल मुकाबले में किया, जो सफल भी रहा । हैडन ने मात्र 43 गेंदों में 93 रनों की पारी खेली जिसमें सात गगनचुंबी छक्के भी शामिल थे। बल्ले को ब्रिटिश स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी मोनगूज ने डिजाइन किया है। इसकी खासियत यह कि इस बल्ले में गेंद पर प्रहार के लिए आर्दश माना जाने वाला भाग जिसे स्वीट स्ट्रोक स्पोट कहा जाता है, दुगना है। पुल या हुक शॉट खेलने या फिर शॉर्ट पिच गेंदों पर फुर्ती से प्रहार करने के लिए इस बल्ले को आदर्श माना जा रहा है। बल्ले बनावट में बदलाव का सीधा ध्येय है ज्यादा चौके-छक्के।इससे कुछ ही समय पहले भी इसी तरह बल्ले की बनावट में बदलाव किया गया है। बल्लेबाजी को और आसान बनाने के ध्येय से एक ऐसा बल्ला बनाया गया है जिससे दोनों तरफ से प्रहार किया जा सकता है। बल्ले की पिछले तरफ के नुकीले हिस्से को चपटा कर दिया गया। उद्देश्य था स्पिन गेंदबाजी का सामना करते हुए रिवर्स या स्वीप शॉट लगाने को आसान बनाना।

आज क्रिकेट की लोकप्रियता अपने चर्म पर है। इसके छोटे स्वरूप टी-20 ने इसे और भी बढ़ाया है। मगर क्रिकेट को मनोरंजन बनाने के लिए गेंदबाजों की बलि दी जा रही है। छोटे मैदान, बल्लेबाजी पिचें, लंबे छक्के, तेज चौके , पॉवर प्ले में बढ़ोतरी , फ्री हिट और अब मोनगूज और डबल साइड बल्लों का प्रयोग बल्लेबाजों को राजा तो गेंदबाजों को रंक बना रहा है। यहां मुकाबला बराबरी का नहीं रहा है। मैदान में अब गेंदबाजों की भूमिका सिर्फ गेंद फेंकने तक ही संकुचित हो रही है और ऐसे में उनसे किसी करिश्मे की उम्मीद करना भी थोड़ी बेमानी है। दुनिया की किसी भी टीम के स्वर्णिम दौर को देखने पर पता चलता है कि उस दौर में उस टीम कि गेंदबाजी मजबूत रही है. यह चाहे वेस्ट इंडीज़ रही हो या फिर पाक। साथ ही यह भी कि गेंदबाज ही किसी भी बल्लेबाज को बेहतर बनाते हैं। दुनिया के महानतम बल्लेबाजों ने अच्छे गेंदबाजों का सामना कर ही तो अपनी बल्लेबाजी को मजबूत किया है। मगर आज क्रिकेट को मंनोरंजन के रूप में परोसने के चक्कर में बल्लेबाजी आसान तो गेंदबाजी उतनी ही मुश्किल होती जा रही है। गेंदबाजी को आकर्षित और आसान बनाने के लिए कोई बदलाव आधुनिक क्रिकेट में नही हो रहे हैं। हर कोई बल्ला थामना चाहता है जो क्रिकेट को सिर्फ मंनोरंजक बनाने के लिए तो सही है मगर इस खेल में सही प्रतिभा को बाहर लाने के लिए प्रतिकूल है। बदलावों में संतुलन की दरकार है।